Wednesday, January 30, 2013
Vivekananda Study Circle
Sunday, January 20, 2013
भारतवर्ष में "स्त्री"
स्वामी विवेकानंद के अमेरिका प्रवास के दौरान एक व्याख्यान में उनसे प्रश्न पूछा गया कि भारतवर्ष में "स्त्री" का क्या स्थान है ?
इसके उत्तर में उन्होंने कहा था कि "बाल्य अवस्था में वह पुत्री, युवा में गृहणी एवं प्रौढ़ में वह मां का स्थान पाती है। इन अवस्थाओं में वह प्यार, अधिकार व श्रद्धा प्राप्त करती है", परंतु वहीं पर पश्चिमी देशों में स्त्री हर अवस्था में केवल स्त्री ही रहती है।
हमारे देश में शक्ति की पूजा भी देवी के रूप में की जाती है, परंतु आज के युग में देश व समाज की ये मान्यताएं धूमिल हो रही हैं तथा जगह-जगह स्त्रियॉं को प्रताडि़त व उन्हें केवल भोग्य की वस्तु समझा जा रहा है, परंतु जब-जब भी यह भूल हुई तब-तब पृथ्वी पर महाविनाश हुआ।
सबसे प्रथम विचारों की शुद्धता व त्याग की भावना होना जरूरी है, इसके बाद शुचिता व सेवा आवश्यक है। हमें ऐसे दृश्य व कृत्यों से बचना चाहिए जिनसे विचार दूषित हों व मन मलिन हो। जिस समाज की मानसिकता ही दूषित होगी वह कभी प्रगति नहीं कर सकता।
आइए भारतीय समाज को दोबारा एक विकसित समाज कहलाने के लिए स्त्री के स्थान को दोबारा स्वामी विवेकानंद की कल्पना के अनुरूप बनाकर साथ ही गर्व से विश्व को दिखाएं कि स्त्री दैवीय शक्ति है।
इसके उत्तर में उन्होंने कहा था कि "बाल्य अवस्था में वह पुत्री, युवा में गृहणी एवं प्रौढ़ में वह मां का स्थान पाती है। इन अवस्थाओं में वह प्यार, अधिकार व श्रद्धा प्राप्त करती है", परंतु वहीं पर पश्चिमी देशों में स्त्री हर अवस्था में केवल स्त्री ही रहती है।
हमारे देश में शक्ति की पूजा भी देवी के रूप में की जाती है, परंतु आज के युग में देश व समाज की ये मान्यताएं धूमिल हो रही हैं तथा जगह-जगह स्त्रियॉं को प्रताडि़त व उन्हें केवल भोग्य की वस्तु समझा जा रहा है, परंतु जब-जब भी यह भूल हुई तब-तब पृथ्वी पर महाविनाश हुआ।
सबसे प्रथम विचारों की शुद्धता व त्याग की भावना होना जरूरी है, इसके बाद शुचिता व सेवा आवश्यक है। हमें ऐसे दृश्य व कृत्यों से बचना चाहिए जिनसे विचार दूषित हों व मन मलिन हो। जिस समाज की मानसिकता ही दूषित होगी वह कभी प्रगति नहीं कर सकता।
आइए भारतीय समाज को दोबारा एक विकसित समाज कहलाने के लिए स्त्री के स्थान को दोबारा स्वामी विवेकानंद की कल्पना के अनुरूप बनाकर साथ ही गर्व से विश्व को दिखाएं कि स्त्री दैवीय शक्ति है।
जय हिन्द !
Saturday, January 19, 2013
Saturday, January 12, 2013
भविष्य के नेता हैं विवेकानंद
भारतीय समाज, विशेषकर युवा पीढ़ी आज एक बहुत बड़े भटकाव और निराशा से गुजर रही है। एक ओर देश का अत्यंत समृद्ध तबका और धनी मध्यमवर्ग है जो अपनी लोक व क्षेत्रीय संस्कृति को भुलाकर, उपभोक्तावादी औपनिवेशिक संस्कृति के खुमार में डूबकर और समाज के सरोकारों से खुद को काटकर एक मूल्य विहीन जीवन शैली को अपनाने में गर्व महसूस करता है। दूसरी ओर एक बहुत बड़ा वंचितों का तबका है, जिसमें दलित, आदिवासी, महिलाएं, छोटे किसान और मजदूर आजादी के 65 वर्ष बाद भी जीवन की मूलभूत आवश्यकताओं और न्यूनतम लोकतांत्रिक अधिकारों से भी वंचित है। स्वामी विवेकानंद ने ब्रिटिश साम्राज्यवाद के दौर में भारतीय युवाओं में मानवीय मूल्यों पर आधारित सामाजिक विकास और राष्ट्रवाद की भावना का संचार कर इस देश को जो दिशा दी थी, वह आज के समय में भी इस देश और युवाओं के लिए उतनी ही प्रासंगिक और जरूरी है।
भारतीय समाज में जातिवाद और पुरुष प्रधान सामंती सोच के कारण महिलाओं की गैर बराबरी और शोषण हमारे समय की सबसे बड़ी चुनौतियां है। इनका हल निकाले बिना मानवता के उत्थान अथवा धार्मिक-सामाजिक विकास के किसी सिद्धांत पर चर्चा करना बेमानी होगा। जाति व्यवस्था के बारे में स्वामी विवेकानंद का कहना था कि यह एक दोषपूर्ण व्यवस्था है। हमारे देश में अंधविश्वास और बुराइयां बहुत हैं। यह जाति व्यवस्था ही है जिसके कारण आज भी करोड़ों लोगों को भूखे पेट सोना पड़ता है। 'जन्म पर आधारित जाति व्यवस्था या नस्ल पर आधारित भेदभाव वास्तव में प्रकृति के श्रेष्ठतम बौद्धिक और मानसिक क्षमताओं के रूप में हमारे मनुष्य होने की पहचान पर एक बहुत बड़ा प्रश्नचिन्ह है। यह समाज एवं राष्ट्र के रूप में विभिन्न क्षेत्रों में प्रतिभा और क्षमता की तमाम उपलब्धियों के लिखे जा रहे सुनहरे अध्यायों के ऊपर लिपी हुई एक कालिख है, जिसे हम देखना नहीं चाहते।'
स्वामी विवेकानंद के शब्दों में 'इस देश में महिला व पुरुष के बीच इतना अंतर क्यों है, यह समझना बहुत मुश्किल है। वेदों का यह स्पष्ट ऐलान है कि सभी में एक ही और एक जैसी ही चेतना मौजूद है। आप हमेशा महिलाओं की आलोचना करते हैं पर आपने उनके उत्थान के लिए क्या किया है, सिवाय उन्हें कड़े नियमों में बांधने के? पुरुषों ने औरतों को बस बच्चा पैदा करने की मशीन में बदल दिया है। महिला को ऊपर उठाए बिना आपके खुद के आगे बढ़ने का और कोई रास्ता नहीं हो सकता।'
भारत में महिलाओं को शिक्षा का अधिकार दिलाने में स्वामी विवेकानंद का बहुत बड़ा योगदान है। जिस समयभारत में महिला शिक्षा को धर्माचार्यों द्वारा सम्मान की दृष्टि से नहीं देखा जाता था, उस समय उन्होंने इस विषयमें कहा था- 'कौन से शास्त्र है जिनमें आपको लिखा मिलेगा कि नारी ज्ञान एवं भक्ति के लायक नहीं है? पतन केदौर में जब धर्माचार्यों ने दूसरी जातियों को वेद पढ़ने के लिए अक्षम घोषित किया, तभी उन्होंने महिलाओं को भीउनके अधिकारों से वंचित कर दिया। नहीं तो आप पाएंगे वैदिक और उपनिषद काल में मैत्रेयी एवं गार्गी जैसीस्त्रियों ने ऋषि-मुनियों के बराबर स्थान प्राप्त किया था। एक हजार ब्राह्मणों की उपस्थिति में, जो वेदों के बड़ेविद्वान थे, गार्गी ने बड़े साहस से याज्ञवल्क्य को ब्रह्म ज्ञान के ऊपर शास्त्रार्थ की चुनौती दी थी। स्त्रियां यदि उससमय ज्ञान की अधिकारी थीं तो आज के समय में ये अधिकार उन्हें क्यों न मिलें?'
भारतीय समाज में स्त्री-पुरुष व के प्रेम व यौन संबंधों की प्रकृति एवं उसका आधार मुख्य रूप से सामंती है। हमसभी इन संबंधों में विवाह संस्था की घटती जरूरत पर चिंता प्रकट करते है, पर भारतीय समाज में परिवार वविवाह संस्था नारी गुलामी को सामाजिक स्वीकृति देने वाली व्यवस्था के रूप में ही मौजूद है, इस पर हम चुपहैं। सामंती संस्कृति और भूमंडलीकरण के बाद उपजी औपनिवेशिक संस्कृति, दोनों में ही स्त्री की संपूर्ण ऊर्जा,विवेक, घरेलू व अन्य श्रम में उसके योगदान और उसकी आकाश छूती महत्वाकांक्षाओं और क्षमताओं कोनजरअंदाज कर उसके व्यक्तित्व को पुरुष द्वारा परिभाषित सौंदर्य मानकों तक सीमित कर दिया गया है। पर इसतथ्य से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि भूमंडलीकरण ने महिलाओं को घर की चारदीवारी में कैद रखने कीदकियानूसी सोच के खिलाफ विद्रोह की ज़मीन भी तैयार की है। भारत को एक प्रगतिशील समाज बनाने के लिएइस विद्रोह को हमें एक सकारात्मक दिशा देनी होगी।
एक बार भयंकर अकाल पड़ा। स्वामी विवेकानंद का हृदय पीडि़तों की सेवा के लिए भावविभोर हो उठा। वेदिन-रात सेवा कार्य के लिए तत्पर रहते। उन दिनों कोई भी साधु-संत या पंडित धर्म या दर्शन पर चर्चा के लिएआते तो सारी चर्चा को बंद करके वे अकाल पीडि़तों की सेवा को ही बातचीत का मुख्य मुद्दा बना देते थे। उसीसमय पंजाब प्रांत से 'हितवादी' के संपादक पंडित सखाराम गणेश देऊस्कर अपने साथियों के साथ स्वामी जी सेमिलने आए। बातचीत के दौरान उन्होंने पूरा समय इस पर केंद्रित कर दिया कि पंडित देऊस्कर के इलाके मेंअकाल पीडि़तों को कैसे ज्यादा से ज्यादा भोजन उपलब्ध करवाया जाए। जाने से पहले पंडित सखाराम जी नेनाराजगी जताते हुए कहा कि हमें आपसे धर्म के ऊपर महत्वपूर्ण प्रवचनों और उपदेशों की उम्मीद थी पर हमारासमय व्यर्थ की बातों में बर्बाद हो गया। यह सुनकर स्वामी विवेकानंद काफी गंभीर हो गए और उन्होंने जवाबदिया- 'श्रीमान, जब तक मेरे देश का एक कुत्ता भी भूखा है, मेरा पहला धर्म उसके लिए भोजन की व्यवस्थाकरना है।' उनका जवाब सुनकर तीनों आगंतुक स्तब्ध रह गए। स्वामी जी की मृत्यु के बाद पंडित सखाराम ने उसघटना को याद करते हुए कहा था- 'उनके उन शब्दों ने मेरी सोच को हमेशा के लिए बदल के रख दिया और मुझेअहसास दिलाया कि सच्ची देशभक्ति क्या होती है।'
श्रम पर आधारित काम को हेय दृष्टि से देखने और बिना मेहनत के रातोंरात पूंजीपति बनने का जुगाड़ करने कीएक और संस्कृति इधर देश में तेजी से फैल रही है और इसकी गिरफ्त में युवा वर्ग सबसे ज्यादा है। मीडिया औरमनोरंजन उद्योग से मेहनतकश आम आदमी, उसके मुद्दे और परिवेश आज पूरी तरह गायब हो चुका है। कुछराजनीतिक हलकों द्वारा अपने स्वार्थ की पूर्ति के लिए सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का नारा उछाला जा रहा है, जिसकाआधार सांप्रदायिक ध्रुवीकरण है। आर्थिक विषमता और जातिवाद का हल खोजे बिना जनता में प्रगतिशीलराष्ट्रवाद की भावना का संचार नहीं किया जा सकता। जब भी यह चुनौती हम अपने सामने रखेंगे, अपने संघर्षका आदि प्रेरणास्रोत स्वामी विवेकानंद को ही पाएंगे।
by स्वामी अग्निवेश
via NBT
भारतीय समाज में जातिवाद और पुरुष प्रधान सामंती सोच के कारण महिलाओं की गैर बराबरी और शोषण हमारे समय की सबसे बड़ी चुनौतियां है। इनका हल निकाले बिना मानवता के उत्थान अथवा धार्मिक-सामाजिक विकास के किसी सिद्धांत पर चर्चा करना बेमानी होगा। जाति व्यवस्था के बारे में स्वामी विवेकानंद का कहना था कि यह एक दोषपूर्ण व्यवस्था है। हमारे देश में अंधविश्वास और बुराइयां बहुत हैं। यह जाति व्यवस्था ही है जिसके कारण आज भी करोड़ों लोगों को भूखे पेट सोना पड़ता है। 'जन्म पर आधारित जाति व्यवस्था या नस्ल पर आधारित भेदभाव वास्तव में प्रकृति के श्रेष्ठतम बौद्धिक और मानसिक क्षमताओं के रूप में हमारे मनुष्य होने की पहचान पर एक बहुत बड़ा प्रश्नचिन्ह है। यह समाज एवं राष्ट्र के रूप में विभिन्न क्षेत्रों में प्रतिभा और क्षमता की तमाम उपलब्धियों के लिखे जा रहे सुनहरे अध्यायों के ऊपर लिपी हुई एक कालिख है, जिसे हम देखना नहीं चाहते।'
स्वामी विवेकानंद के शब्दों में 'इस देश में महिला व पुरुष के बीच इतना अंतर क्यों है, यह समझना बहुत मुश्किल है। वेदों का यह स्पष्ट ऐलान है कि सभी में एक ही और एक जैसी ही चेतना मौजूद है। आप हमेशा महिलाओं की आलोचना करते हैं पर आपने उनके उत्थान के लिए क्या किया है, सिवाय उन्हें कड़े नियमों में बांधने के? पुरुषों ने औरतों को बस बच्चा पैदा करने की मशीन में बदल दिया है। महिला को ऊपर उठाए बिना आपके खुद के आगे बढ़ने का और कोई रास्ता नहीं हो सकता।'
भारत में महिलाओं को शिक्षा का अधिकार दिलाने में स्वामी विवेकानंद का बहुत बड़ा योगदान है। जिस समयभारत में महिला शिक्षा को धर्माचार्यों द्वारा सम्मान की दृष्टि से नहीं देखा जाता था, उस समय उन्होंने इस विषयमें कहा था- 'कौन से शास्त्र है जिनमें आपको लिखा मिलेगा कि नारी ज्ञान एवं भक्ति के लायक नहीं है? पतन केदौर में जब धर्माचार्यों ने दूसरी जातियों को वेद पढ़ने के लिए अक्षम घोषित किया, तभी उन्होंने महिलाओं को भीउनके अधिकारों से वंचित कर दिया। नहीं तो आप पाएंगे वैदिक और उपनिषद काल में मैत्रेयी एवं गार्गी जैसीस्त्रियों ने ऋषि-मुनियों के बराबर स्थान प्राप्त किया था। एक हजार ब्राह्मणों की उपस्थिति में, जो वेदों के बड़ेविद्वान थे, गार्गी ने बड़े साहस से याज्ञवल्क्य को ब्रह्म ज्ञान के ऊपर शास्त्रार्थ की चुनौती दी थी। स्त्रियां यदि उससमय ज्ञान की अधिकारी थीं तो आज के समय में ये अधिकार उन्हें क्यों न मिलें?'
भारतीय समाज में स्त्री-पुरुष व के प्रेम व यौन संबंधों की प्रकृति एवं उसका आधार मुख्य रूप से सामंती है। हमसभी इन संबंधों में विवाह संस्था की घटती जरूरत पर चिंता प्रकट करते है, पर भारतीय समाज में परिवार वविवाह संस्था नारी गुलामी को सामाजिक स्वीकृति देने वाली व्यवस्था के रूप में ही मौजूद है, इस पर हम चुपहैं। सामंती संस्कृति और भूमंडलीकरण के बाद उपजी औपनिवेशिक संस्कृति, दोनों में ही स्त्री की संपूर्ण ऊर्जा,विवेक, घरेलू व अन्य श्रम में उसके योगदान और उसकी आकाश छूती महत्वाकांक्षाओं और क्षमताओं कोनजरअंदाज कर उसके व्यक्तित्व को पुरुष द्वारा परिभाषित सौंदर्य मानकों तक सीमित कर दिया गया है। पर इसतथ्य से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि भूमंडलीकरण ने महिलाओं को घर की चारदीवारी में कैद रखने कीदकियानूसी सोच के खिलाफ विद्रोह की ज़मीन भी तैयार की है। भारत को एक प्रगतिशील समाज बनाने के लिएइस विद्रोह को हमें एक सकारात्मक दिशा देनी होगी।
एक बार भयंकर अकाल पड़ा। स्वामी विवेकानंद का हृदय पीडि़तों की सेवा के लिए भावविभोर हो उठा। वेदिन-रात सेवा कार्य के लिए तत्पर रहते। उन दिनों कोई भी साधु-संत या पंडित धर्म या दर्शन पर चर्चा के लिएआते तो सारी चर्चा को बंद करके वे अकाल पीडि़तों की सेवा को ही बातचीत का मुख्य मुद्दा बना देते थे। उसीसमय पंजाब प्रांत से 'हितवादी' के संपादक पंडित सखाराम गणेश देऊस्कर अपने साथियों के साथ स्वामी जी सेमिलने आए। बातचीत के दौरान उन्होंने पूरा समय इस पर केंद्रित कर दिया कि पंडित देऊस्कर के इलाके मेंअकाल पीडि़तों को कैसे ज्यादा से ज्यादा भोजन उपलब्ध करवाया जाए। जाने से पहले पंडित सखाराम जी नेनाराजगी जताते हुए कहा कि हमें आपसे धर्म के ऊपर महत्वपूर्ण प्रवचनों और उपदेशों की उम्मीद थी पर हमारासमय व्यर्थ की बातों में बर्बाद हो गया। यह सुनकर स्वामी विवेकानंद काफी गंभीर हो गए और उन्होंने जवाबदिया- 'श्रीमान, जब तक मेरे देश का एक कुत्ता भी भूखा है, मेरा पहला धर्म उसके लिए भोजन की व्यवस्थाकरना है।' उनका जवाब सुनकर तीनों आगंतुक स्तब्ध रह गए। स्वामी जी की मृत्यु के बाद पंडित सखाराम ने उसघटना को याद करते हुए कहा था- 'उनके उन शब्दों ने मेरी सोच को हमेशा के लिए बदल के रख दिया और मुझेअहसास दिलाया कि सच्ची देशभक्ति क्या होती है।'
श्रम पर आधारित काम को हेय दृष्टि से देखने और बिना मेहनत के रातोंरात पूंजीपति बनने का जुगाड़ करने कीएक और संस्कृति इधर देश में तेजी से फैल रही है और इसकी गिरफ्त में युवा वर्ग सबसे ज्यादा है। मीडिया औरमनोरंजन उद्योग से मेहनतकश आम आदमी, उसके मुद्दे और परिवेश आज पूरी तरह गायब हो चुका है। कुछराजनीतिक हलकों द्वारा अपने स्वार्थ की पूर्ति के लिए सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का नारा उछाला जा रहा है, जिसकाआधार सांप्रदायिक ध्रुवीकरण है। आर्थिक विषमता और जातिवाद का हल खोजे बिना जनता में प्रगतिशीलराष्ट्रवाद की भावना का संचार नहीं किया जा सकता। जब भी यह चुनौती हम अपने सामने रखेंगे, अपने संघर्षका आदि प्रेरणास्रोत स्वामी विवेकानंद को ही पाएंगे।
by स्वामी अग्निवेश
via NBT
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